Monday, August 10, 2009

समान बचपन अभियान

(खण्ड एक )
(उद्देश्य, नीति और कार्यक्रम)
समान बचपन अभियान दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र के सभी बच्चों को समान अवसर दिलाने के लिए चल रहा है। समान अवसर वह अधिकार है जो हमारे संविधान ने हर बच्चे के लिए निश्चित किया, पर आजादी के बासठ साल गुजर जाने के बाद भी यहाँ के बच्चों को नहीं मिल पाया। आज सुविधासम्पन्न और वंचित तबकों के बच्चों को मिल रहे अवसरों में जमीन आसमान का अन्तर है। अवसरों के इस भारी अन्तर ने इन दोनों तबकों के बीच इतनी चौड़ी खाई बना दी है, जिसे चाह कर भी पार कर पाना यहाँ के बच्चों के लिए कभी सम्भव नहीं हो पाता और उन्हें जिन्दगी भर सुविधासम्पन्न तबके के लोगों के नीचे ही रह कर काम करना पड़ता है। समान बचपन अभियान एक ऐसे बदलाव की मांग कर रहा है, जिसमें इस आदिवासी क्षेत्र के बच्चों को सुविधासम्पन्न तबकों के बच्चों के बराबर पढ़ने, आगे बढ़ने और जिन्दगी में हर मोर्चे पर कामयाब होने का पूरा मौका मिल सके। इसके लिए क्षेत्र के २७ ब्लॉक के हर व्यक्ति को एकजुट करते हुए एक बड़ा जन-अभियान खड़ा करने की कोशिश जारी है ताकि इस क्षेत्र के बच्चों के अधिकार सुनिश्चित किये जा सकें।
दक्षिणी राजस्थान का आदिवासी क्षेत्र या मजदूर पैदा करने का कारखाना!
दक्षिणी राजस्थान का आदिवासी क्षेत्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण और बदहाली के दलदल में धँसा हुआ है। हालाँकि यह बदहाली बहुत पुरानी है परन्तु आजादी के पहले चूँकि पूरा क्षेत्र एक अन्यायपूर्ण अंगे्रजी हुकूमत के अधीन था इसलिये उस दौर के बारे में हम बहुत अधिक अपेक्षा नहीं रख सकते, पर आजादी के बाद आज बासठ साल गुजर जाने के बावजूद क्यों इस क्षेत्र के हालात नहीं बदले और क्यों यहाँ के लोगों की जिन्दगी बद से बदतर होती चली गयी, इस सवाल का जवाब आने वाला कल जरूर लेकर रहेगा। सोचने वाली बात है कि अगर इस बदहाली को समाप्त करने का कोई इरादा हमारी राजनीतिक पार्टियों या सरकारी व्यवस्था का होता तो क्या बासठ साल का समय इसके लिये बहुत कम था ? समानता और लोकतंत्र पर आधारित हमारे संविधान ने यह इन्तजाम किया था कि इस देश के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले और किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय अथवा वर्ग के लोगों को एक नागरिक के तौर पर देश के संसाधनों एवं सुविधाओं में बराबर का साझीदार बनाया जाएगा तथा उनके लिये सम्मानपूर्वक जीने, अपनी संस्कृति या धर्म के अनुसार चलने और विकास करने की आजादी होगी। इसके पीछे यह सोच काम कर रही थी कि सदियों से जाति, धर्म और वर्ग के आधार पर होते चले आ रहे शोषण को समाप्त कर एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की जा सकेगी। पर क्या इस देश के सभी क्षेत्र के लोगों को एक आजाद देश में रहने का सुख मिल सका ? हमने देखा कि देश के कुछ क्षेत्रों में तो अमीरी के बड़े-बड़े महल खड़े हो गये पर ज्यादातर क्षेत्र लगातार बदहाल और कंगाल होते चले गये। इसी देश के अन्दर मुट्ठी भर अमीरों ने बाकी लोगों से अलग अपने-अपने किले बना लिये और उनकी संपत्ति लाखों से करोड़ों और करोड़ों से अरबों में पहुँच गयी पर दूसरी तरफ देश के बहुसंख्यक वंचितों और गरीबों की न केवल संख्या ही बढ़ी बल्कि उनकी गरीबी का स्तर भी बढ़ा। कहने का मतलब यह कि आजादी के बाद उनका जीवन पहले से कहीं अधिक कठिन, अधिक लाचार और असुरक्षित हो गया। देश के कुछ क्षेत्र जो भौगोलिक और प्राकृतिक दृष्टि से बाकी क्षेत्रों से कटे हुए थे, उनकी मुश्किलें तो सारी हदों को पार कर गईं और उन्होंने इन्सान होने का एहसास तक खो दिया। दक्षिणी राजस्थान का यह आदिवासी क्षेत्र भी इसी दुश्चक्र में उलझ कर रह गया है। सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के अन्तर्गत लाखों-करोड़ों की धनराशि अब तक खर्च की जा चुकी है पर इस क्षेत्र के लोगों के जीवन में, उनके रहन-सहन में कोई गुणात्मक परिवर्तन नजर नहीं आता।
दक्षिणी राजस्थान का यह आदिवासी क्षेत्र आज भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं तक के लिए तरस रहा है। यहाँ के खेत पानी के अभाव में सूख जाते हैं। न तो यहाँ रोजगार के पर्याप्त साधन हैं और न ही सड़क, पानी, बिजली, यातायात या चिकित्सा की मामूली सुविधाएँ भी लोगों को मिल पाई हैं। साल के कुछ महीनों में अपनी तथा अपने परिवार की जिन्दगी बचाने के लिए शहरों की तरफ पलायन करना तो जैसे इस क्षेत्र के लोगों की नियति बन चुकी है। क्षेत्र के गाँव-गाँव में स्कूलों का जाल तो बिछ गया है पर उन स्कूलों में एक ऐसी शिक्षा प्रणाली चलाई जा रही है, जिसमें यहाँ के बच्चों के पढ़ने, कुछ सीख पाने या आगे बढ़ने के मौके बिल्कुल नहीं हैं। इस शिक्षा प्रणाली से गुजरने के बाद भी यहाँ के बच्चे इस लायक नहीं बन पाते कि वे मजदूरी के अलावा कोई दूसरा काम कर सकें और इस तरह उन्हें जिन्दगी भर सुविधासम्पन्न तबके के लोगों के नीचे ही रहकर काम करना पडता है। यही कारण है कि आज दक्षिणी राजस्थान के स्कूलों को बडे पैमाने पर मजदूर तैयार करने का कारखाना कहा जा रहा है।
शिक्षा का वर्तमान ढाँचा और बदहाली का रिश्ता
दक्षिणी राजस्थान का यह आदिवासी क्षेत्र बदहाली के जिस दुश्चक्र में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उलझा हुआ है, उससे बाहर निकलने का कोई भी रास्ता तभी मिल सकता है जब इस क्षेत्र की बदहाली के असली मुद्दों को पहचाना जाये और गैरबराबरी के बारे में क्षेत्र के लोगों की समझ साफ हो। देश के दूसरे क्षेत्रों में तेजी से हो रहे विकास के बारे में एक आजाद देश के नागरिक के तौर पर अपने अधिकारों के बारे में आज भी इस क्षेत्र के लोग अनजान बने हुए हैं। उन्हें मालूम नही है कि इस क्षेत्र में सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा, आवागमन के साधन, अस्पताल, डाॅक्टर, रोजगार आदि की व्यवस्था करना किसकी जिम्मेदारी है और अगर उन्हें ये सुविधाएँ नहीं मिल रही हैं , सम्मान के साथ जीने या आगे बढ़ने का अवसर नही मिल रहा है, यहाँ तक कि उनके मौलिक अधिकार तक उन्हें नहीं मिल पा रहे हैं तो यह अपराध किसका है और जो लोग इसके लिए दोषी हैं, उन्हें सजा क्यों नहीं मिल रही है। इतिहास गवाह है कि जिस क्षेत्र के लोगों को अच्छी शिक्षा, कामयाबी के मौके और दूसरे नागरिक अधिकार मिले, उन्होंने बड़ी तेजी के साथ अपना सम्पूर्ण विकास कर लिया और देश की मुख्यधारा में शामिल हो गये। यह क्षेत्र आजादी के इतने सालों बाद भी अशिक्षा के अन्धकार में डूबा हुआ है और बचपन से ही यहाँ के लोगों के लिए आगे बढ़ने के अवसर नही हैं। अशिक्षा का कारण यह नहीं है कि इस क्षेत्र में स्कूलों की कमी है या गरीबी पढ़ने में बाधा बन रही है। आज हर गाँव में स्कूल खुल गये हैं, आँगनवाड़ी चल रही है, हाॅस्टल खोले गये हैं और बच्चों को खाना, किताबें, पोशाक आदि मुफ्त दिये जा रहे हैं। पहले फेल होने के डर से बच्चे स्कूल छोड़ देते थे, पर आज पाँचवी तक फेल करने का सिस्टम भी समाप्त कर दिया गया है। तो फिर क्या कारण है कि बच्चे पढ़ नहीं पा रहे, कुछ सीख नहीं पा रहे हैं ? क्यों पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद भी वे मजदूर के अलावा कुछ नहीं बन पाते ? इसकी जड़ में दसअसल वह शिक्षा व्यवस्था है जिसके आधार पर यहाँ के स्कूल चल रहे हैं। यह शिक्षा व्यवस्था नहीं चाहती कि इस आदिवासी क्षेत्र के बच्चे पढ़-लिख कर इस लायक बन जाएँ कि वे अमीरों के शहरों में रहने वाले बच्चों को चुनौती दें और उनके मुकाबले में खडे हों। इसके पीछे शायद यह सोच काम कर रही है कि अगर यहाँ के बच्चे पढ़-लिख कर सक्षम बन जाएँगे तो शहरों के बच्चों की मजदूरी कौन करेगा ? अहमदाबाद या देश के दूसरे बड़े शहरों के होटल और खदान मालिकों को कौन इतने बडे पैमाने पर बाल मजदूर मुहैया कराएगा। अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कामयाबी के मौके मिलने से क्या यहाँ के बच्चे भी डाॅक्टर, इन्जीनियर, कलक्टर या मंत्री नहीं बनने लगेंगे ?दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था और प्रशासन से जुडे लोगों में प्रायः ऐसा पूर्वाग्रह देखने में आता है कि इस क्षेत्र के लोगों पर परिश्रम करना बेकार है, ये पिछडे हैं और पिछडे ही रहेंगे। यह मानसिकता उन्हें यह बात समझने ही नहीं देती कि जिन समाजों को सदियों से ज्ञान और शिक्षा की मुख्यधारा से काटकर रखा गया हो, वे चन्द वर्षों में ही कैसे इस खाई को पार कर सकते हैं ? ध्यान से देखने पर मालूम पड़ जाता है कि क्यों यहाँ के स्कूलों में बच्चे चाहे जितने भी हों, पर शिक्षक अक्सर एक ही होता है। अकेला शिक्षक स्कूल की अलग-अलग कक्षाओं के सभी बच्चों को एक साथ बिठा कर क्या पढ़ा सकेगा, यह जानने के लिये बहुत अधिक समझदारी की जरूरत नहीं पड़ती। ऊपर से शिक्षक के सिर पर दर्जनों दूसरे कामों का इतना बड़ा बोझ लाद दिया गया है कि वह चाह कर भी बच्चों को पढ़ाने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकता। पाँचवीं कक्षा तक फेल न करने की नीति की वजह से आज यह पता लगाना असंभव हो गया है कि बच्चे कक्षा में क्या सीख पा रहे हैं। छठी में जाकर ही अभिभावक को पता चलता है कि बच्चा अपना नाम भी लिख सकता है या नहीं, और तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि माता-पिता केवल अपना सिर पीट सकते हैं, कुछ कर नहीं सकते। इस व्यवस्था में स्कूल पहुँचने वाले सैकड़ों बच्चों में से बड़ी मुश्किल से दो-चार बच्चे दसवीं तक पहुँच पाते हैं और उनमें भी लड़कियों की हालत बहुत चिन्ताजनक है। छात्रावासों में भी बच्चों की जरूरतों को, उनकी पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद-मनोरंजन, खाना-पीना, साफ-सफाई आदि को महत्व नहीं दिया जा रहा है। ज्यादातर छात्रावासों में या तो अस्थायी अधीक्षक नियुक्त हैं या उनके ऊपर कई-कई छात्रावासों की जिम्मेदारी है। कुछ छात्रावासों के प्रबन्ध के खर्च की पूरी राशि सीधे प्रबन्धकों को मिल जाती है पर कुछ में यह राशिः ठेकेदारों को दी जाती है ताकि वे सामान की आपूर्ति करें। इन दोनों ही व्यवस्थाओं में अधीक्षक सरकार को हर समस्या के लिये दोषी ठहराते हैं, पर वास्तव में ये दोनों ही व्यवस्थाएँ बच्चों के भविष्य की सारी सम्भावनाओं को कुचलने में लगी हैं। इन हालात में दसवीं से आगे पढ़ने की इच्छा रखने वाले बच्चों के सपने कमजोर नींव, हीन भावना और प्रतियोगिता की वजह से टूट कर बिखर जाते हैं। वह किसी मामूली नौकरी के लिए भी लड़ नहीं पाता और आखिरकार मजदूरी का रास्ता पकड़ लेता है। इस तरह जिन्दगी भर वह चाहे जितना जोर लगा ले पर बदहाली के इस फन्दे से उसे कभी छुटकारा नहीं मिल पाता।
क्यों नहीं रुकता बदहाली और शोषण का यह सिलसिला ?
शोषण और बदहाली के विरोध में खड़े होने के लिए जिस क्षमता, जिस साहस की जरूरत पड़ती है, उसकी नींव बचपन में ही पड़ती है। चूँकि इस क्षेत्र के लोगों को बचपन से ही अपनी क्षमताओं को विकसित करने का, एक सशक्त नागरिक बनने का मौका नहीं मिलता, इसलिये वे अपनी बदहाली के विरोध में आवाज उठाने मे कभी खुद को सक्षम नहीं पाते। एक तो इस क्षेत्र के लोगों को बाहर की सूचनाएँ नहीं मिलतीं, इसलिये वे यह जान नहीं पाते कि विकास के उनके अधिकार क्या हैं, दूसरे ऊपरी स्तर यानि नीति-निर्माण की प्रक्रिया के स्तर पर जो भेदभाव और गैरबराबरी कायम है, उसके बारे में भी उनकी समझ साफ नहीं हो पाई है। जीवन में कामयाबी के बड़े उदाहरणों के अभाव में उनके अन्दर अपनी जिन्दगी को बेहतर बनाने के सपने देखने या उन सपनों को सच करने की हिम्मत नहीं पैदा होती। एक दो प्रतिशत लोग, जिन्हें आगे बढ़ने के सीमित अवसर मिलते हैं , उन्हें देखकर इस क्षेत्र के लोगों के अन्दर इस नकारात्मक सोच को ही बल मिलता है कि जरूर उनके अपने व्यक्तित्व में ही कोई कमी है, नहीं तो वे भी सफलता प्राप्त कर सकते थे। इससे एक हीन भावना उनके अन्दर पैदा हो जाती है। वे अपने असली मुद्दों को सामने लाने से कतराते हैं और विभिन्न सरकारी योजनाओं से कुछ मिलने की आस में समय गुजारते रहते हैं।
समान बचपन का मुद्दा ही क्यों ?
किसी भी क्षेत्र की निरन्तर बदहाली को खत्म करने के लिए उस निर्णय प्रक्रिया में बदलाव लाना पड़ता है, जिसके तहत् उस क्षेत्र के विकास के बारे में नीतियाँ बनती हैं, फैसले लिये जाते हैं। यहाँ के बच्चों को बचपन में क्षमता बढ़ाने वाले अवसर नहीं मिल पाते, गुणवत्ता वाली शिक्षा नहीं मिलती, इसलिये बड़े होकर वे एक सशक्त नागरिक नहीं बन पाते। अपनी बदहाली के कारणों को समझने और उस निर्णय प्रक्रिया पर असर डालने के लिए जो कि इस क्षेत्र की किस्मत का फैसला करती है, जैसी क्षमता चाहिये, वह बचपन में मौका न मिलने से पैदा ही नहीं हो पाती और यहाँ के लोग जिन्दगी भर चुपचाप सब कुछ सहते रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यह बदहाली समान बचपन का मुद्दा उठा कर ही दूर की जा सकती है, क्योंकि क्षेत्र की सभी समस्याओं की जड़ में बचपन में होने वाला भेदभाव, अवसरों में कमी और असमानता पर आधारित गुणवत्ताहीन शिक्षा है। समान बचपन की मांग एक ऐसी चाबी है जिससे इस क्षेत्र के सभी तालों को खोला जा सकता है वे ताले जो इस क्षेत्र की खुशहाली , यहाँ के रोजगार और बच्चों के भविष्य पर लगे हुए हैं। आज यह चाबी पूरे दक्षिणी राजस्थान के हर आदमी के हाथ में होनी चाहिये। समान बचपन की इस मांग का सीधा-सा मतलब यह है कि इस आदिवासी क्षेत्र के बच्चों को भी देश के दूसरे सुविधासम्पन्न क्षेत्रों या तबकों के बच्चों की तरह एक समान गुन्वत्तावालीवाली और जिन्दगी में आगे बढ़ने का एक समान अवसर चाहिये। बचपन से क्षमता निर्माण का पूरा मौका मिलने पर ही यहाँ के लोगों के अन्दर उस राजनीतिक इच्छाशक्ति या क्षमता का विकास हो सकेगा जो इस क्षेत्र को बदहाल और पिछड़ा बनाए रखने वाली नीतियों में बदलाव ला सके। बिजली, पानी, सड़क या रोजगार जैसे मुद्दे उठाने से कुछ दिनों तक राहत जरूर मिल सकती है, पर उससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाला बदहाली का यह चक्र नहीं टूट सकता।
काम जब सरकार का है तो अभियान क्यों चलाएँ ?
यह सही है कि इस क्षेत्र के बच्चों को शहर के सुविधासम्पन्न तबकों के बच्चों के बराबर पढ़ने, सीखने और आगे बढ़ने के अवसर दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है तथा सरकार की तरफ से इस दिशा में प्रयास भी किये गये हैं , पर हम जानते हैं कि आजादी के बासठ साल गुजर जाने के बाद भी यहाँ के हालात में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। ऐसा इसलिये क्योंकि इस क्षेत्र की सशक्त और एकजुट राजनीतिक आवाज नहीं है। सरकार भी पहले उन क्षेत्रों की समस्याओं पर ध्यान देती है, जहाँ लोग एकजुट होते हैं और एक मतदाता के तौर पर अपनी राजनीतिक ताकत को समझते हैं । आजादी के इतने सालों बाद भी यहाँ के लोग अपनी बदहाली के असली मुद्दों को सामने नहीं ला सके और बिजली, पानी, सड़क जैसे रोजमर्रा के मुद्दों को ही पिछड़ेपन का कारण समझते रहे। यही कारण है कि आज तक इस क्षेत्र की राजनीतिक पार्टियाँ भी इन्हीं मुद्दों पर काम करती रहीं। समानता पर आधारित नियमित गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा तथा बचपन को विकसित होने और हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए अनुकूल अवसर मिलना बच्चों के ऐसे अधिकार हैं, जिन्हें उपलब्ध कराने के लिए हमारी केन्द्र और राज्य सरकार बाध्य है, पर यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज भी इस आदिवासी क्षेत्र के ज्यादातर लोग इन अधिकारों के विषय में जानते तक नहीं। आज जरूरत इस बात की है कि यहाँ के लोग राजनीतिक इच्छा शक्ति से लैस होकर समान बचपन के मुद्दे पर एक बड़ा जन अभियान खड़ा करें ताकि इस क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था की नीति, कार्यक्रम और क्रियान्वयन की पूरी प्रक्रिया में यहाँ के बच्चों के अधिकारों विशेष ध्यान रखा जाए। इसके लिए क्षेत्र के हर एक आदमी को आगे बढ़कर आवाज उठानी होगी।
क्या है समान बचपन अभियान ?
समान बचपन अभियान दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र के सभी बच्चों को समान अवसर दिलाने के लिए चल रहा है। समान अवसर वह अधिकार है जो हमारे संविधान ने हर बच्चे के लिए निश्चित किया, पर आजादी के बासठ साल गुजर जाने के बाद भी यहाँ के बच्चों को नहीं मिल पाया। आज सुविधासम्पन्न और वंचित तबकों के बच्चों को मिल रहे अवसरों में जमीन आसमान का अन्तर है। अवसरों के इस भारी अन्तर ने इन दोनों तबकों के बच्चों के बीच इतनी चौड़ी खाई बना दी है, जिसे चाह कर भी पार कर पाना यहाँ के बच्चों के लिए कभी सम्भव नहीं हो पाता और उन्हें जिन्दगी भर सुविधासम्पन्न तबकों के लोगों के नीचे ही रह कर काम करना पड़ता है। अवसरों की कमी के कारण यहाँ के बच्चों की नींव कमजोर रह जाती है और जिन्दगी भर एक मजदूर बने रहने के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं बचता। खून-पसीना एक करने के बावजूद अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी उन्हें जिन्दगी भर तरसना पड़ता है। इस असमानता और भेदभाव की वजह से बच्चों की क्षमताओं का विकास नहीं हो पाता और वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही बदहाली के विरोध में आवाज नहीं उठा पाते। समान बचपन अभियान एक ऐसे बदलाव की मांग कर रहा है, जिसमें इस आदिवासी क्षेत्र के बच्चों को विकसित क्षेत्र के बच्चों के बराबर पढ़ने, आगे बढ़ने और ज़िन्दगी में हर मोर्चे पर कामयाब होने का पूरा मौका मिल सके। इसके लिए क्षेत्र के 27 ब्लॉक के हर व्यक्ति को एकजुट करते हुए एक बड़ा जन-अभियान खड़ा करने की कोशिश जारी है ताकि इस क्षेत्र के बच्चों के अधिकार सुनिश्चित किये जा सकें।
शेष दूसरे भाग में


9 comments:

  1. Abhiyaan aur yatn to achha hai..baaqee to..'karmanywaadhikarste.."

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  2. aapka swagat hai... isi tarah llikhte rahiye

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  3. Apaka chittha jagat men svagat katate huye harsh ho raha hai.is abhiyan men apke sath hoon.
    Vaise main bhee bachchon kee behataree ke liye ek koshish apane blog ke madhyam se kar raha hoon.samaya nikal kar mere blog par aiye. svagat hai.
    Hemant Kumar

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  4. हार्दिक शुभ कामनाएं !
    --
    मुझे आपके इस सुन्‍दर से ब्‍लाग को देखने का अवसर मिला, नाम के अनुरूप बहुत ही खूबसूरती के साथ आपने इन्‍हें प्रस्‍तुत किया आभार् !!

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  5. बहुत अच्‍छा अभियान है आपका .. लडिए सरकारी अधिकारियो से , कार्यकर्ताओं से .. टैक्‍स में इतना पैसा मिलता है सरकार को .. किस काम के लिए उन्‍होने इतने सरकारी योजनाएं रखी हैं .. किसी पर अमल ही नहीं हो रहा .. सारे पैसे खा जाते हैं सब मिलकर .. और आदिवासी बच्‍चों को यूं ही भाग्‍य भरोसे छोड देते हैं।

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  6. Aapke is prayas ki jitnee tareef ki jaaye kam hai.
    ( Treasurer-S. T. )

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  8. Saman Bachpan - ek soch hai, ek ideology hai. ye sirf dakshin rajasthan ki hi nahi, puri desh ke liye hi bahut jaroori (valid) hai. shiksha ki asamanta aur vyaparikaran (commoditization) ka bura asar sirf garib tabke ke logo ko hi nahi balki middle class samaj ko bhi samajh mein aa rahe hai. shiksha aur swasthya - jo ki sarkar ki jimmedari hona chahiye tha, usi me hi sabse jyada business ho raha hai. isse kuchh gine-chune log - jo ki is dhandha se jude huye hai unko fayda ho raha hai aur aam aadmi pareshan ho raha hai. is chakra se banchne ke liye sabse pahle humko is saach ko pahchanna hoga. jo hum sabke samne hoke bhi hamare nazar se bahar hai. hum is blog ke tahat aur zyada logon ko is saach se muhaiya ya samna kara sakte hai.

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  9. Its a great opportunity to be part of this campaign

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